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चंदौली (बरठी ) के कालेश्वर महादेव : पूर्वांचल की दैविक परंपरा और स्वयंभू शिवलिंग का प्राचीन इतिहास

Chandauli News:पूर्वांचल के चंदौली जनपद में स्थित सकलडीहा–बरठी क्षेत्र का कालेश्वर महादेव मंदिर स्थानीय इतिहास–आस्था और लोक–परंपराओं का एक विशिष्ट संगम है। काशी क्षेत्र की धार्मिक विरासत में यह मंदिर उन विरले शिवालयों में गिना जाता है! जिन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट की अधीनता प्राप्त है और जिनकी उत्पत्ति को स्वयंभू माना गया है। पूर्व में बनारस का ही हिस्सा जिसे बाद में चंदौली बना दिया गया कालेश्वर मंदिर वर्तमान में बनारस मुख्यालय से लगभग पैंतीस किलोमीटर पूर्व में चंदौली जनपद के सकलडीहा रेलवे स्टेशन से सटा हुआ है जो कि वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन से 42 किलोमीटर पूर्व पटना बिहार रूट पर है। विस्तृत अंतराल से गुजरते हुए यह स्थान आज भी अपने प्राचीन स्वरूप और दैविक महिमा के साथ क्षेत्रीय संस्कृति का प्रमुख आधार बना हुआ है।

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मंदिर स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

ऐतिहासिक परंपराएँ बताती हैं कि जिस क्षेत्र में आज बरठी स्थित है, वह प्राचीन काल में घने जंगलों से आवृत था और सकलडीहा कोट के राजा बख्त सिंह की रियासत का हिस्सा माना जाता था। किंवदंती अनुसार, एक रात्रि राजा को स्वप्न में भगवान शिव का दर्शन हुआ। शिव ने संकेत देते हुए कहा कि—“मैं यहीं विद्यमान हूँ, मेरा अनुष्ठान और प्रतिष्ठा कराओ।”

स्वप्न के प्रभाव से प्रेरित होकर राजा ने तत्काल उस स्थल की खुदाई का आदेश दिया। आश्चर्यजनक रूप से भूमि के भीतर से एक स्वयंभू शिवलिंग प्रकट हुआ, जिसे दैवी संकेत मानकर यहाँ मंदिर निर्माण प्रारम्भ किया गया। समय के साथ यह स्थान स्थानीय जनता के लिए आस्था, संरक्षण और सामुदायिक विश्वास का केंद्र बन गया।

दैविक परंपराएँ और चमत्कारिक घटनाएँ
कालेश्वर महादेव से जुड़ी अनेक परंपराएँ आज भी क्षेत्र की सांस्कृतिक स्मृति में जीवित हैं। इन traditions में सबसे उल्लेखनीय है शिवलिंग पर प्राकृतिक काई का उगना। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार वर्षा ऋतु के आगमन से ठीक पहले तथा वर्षा के दौरान शिवलिंग पर अद्भुत रूप से काई जमने लगती है। भक्तगण इस काई को हटाते हैं, किन्तु कुछ ही समय में वह पुनः प्रकट हो जाती है।

दूसरी ओर, ग्रीष्म या दीर्घकालीन सूखे के समय शिवलिंग पूर्णतया निर्मल रहता है। ऐसे अवसरों पर श्रद्धालु प्राचीन परंपरा के अनुसार अरघे के छिद्र को बंद कर उसमें गंगाजल भरते हैं, जिसे मेघ–आह्वान अनुष्ठान के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि अरघा ऊँचा होने के बावजूद शिवलिंग कभी पूर्ण रूप से जलमग्न नहीं होता—यह विशेषता इसे और अधिक रहस्यमय बनाती है।

सावन में धार्मिक उत्कर्ष
सावन का महीना आते ही कालेश्वर महादेव का परिसर भक्तिभाव से परिपूर्ण हो उठता है। दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालु और काँवरिए यहाँ जलाभिषेक के लिए उमड़ पड़ते हैं। प्रथम सोमवारी के अवसर पर तो बरठी गाँव मानो आस्था के विराट मेला–स्थल में परिवर्तित हो जाता है। बढ़ती भीड़ को देखते हुए प्रशासन द्वारा मार्ग–व्यवस्था, सुरक्षा, चिकित्सा और स्वच्छता से जुड़े प्रबंध हर वर्ष पूर्व–नियोजित ढंग से किए जाते हैं।

सांस्कृतिक धरोहर के रूप में महत्व
कालेश्वर महादेव मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल मात्र नहीं, बल्कि पूर्वांचल की दीर्घकालीन सांस्कृतिक यात्रा का जीवंत साक्ष्य है। यहाँ स्थित स्वयंभू शिवलिंग, उससे जुड़ी लोक–कथाएँ, प्रकृति–आधारित चमत्कारिक घटनाएँ और भक्तों की पीढ़ियों से चली आ रही अखंड श्रद्धा—इन सभी ने मिलकर इसे क्षेत्र की एक विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत का रूप प्रदान किया है।

यह मंदिर आज भी पूर्वांचल की परंपराओं, आस्था और सामुदायिक इतिहास को उसी श्रद्धा के साथ आगे बढ़ा रहा है, जिस भाव से इसे सदियों पहले प्रतिष्ठित किया गया था।

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